Premchand was one of the finest writer of Hindi Literature. His Stories addressed problems of common people. I am hereby trying to compile Premchand's stories. The sources will be web (where his stories have been presented in highly unorganized fashion) and sometimes I will type the stories. If you want his stories in Roman Script, do mail me. (reetesh.mukul@gmail.com).
आत्माराम : मुन्शी प्रेमचन्द
वेदी ग्राम में महादेव सोनार एक सुविख्यात आदमी था। वह अपने सायबान में प्रात: से संध्या तक ऍंगीठी के सामने बैठा हुआ खटखट किया करता था। यह लगातार ध्वनि सुनने के लिए लोग इतने अभ्यस्त हो गए थे कि जब किसी कारण से बंद हो जाती, तो जान पडता था, कोई चीज गायब हो गई। वह नित्य-प्रति एक बार प्रात:काल अपने तोते का पिंजडा लिए कोई भजन गाता हुआ तालाब की ओर जाता था। उस धुँधले प्रकाश में उसका जर्जर शरीर, पोपला मुँह, झुकी हुई कमर देखकर किसी अपरिचित मनुष्य को उसके पिशाच होने का भ्रम हो सकता था। ज्यों ही लोगों के कानों में आवाज आती- 'सत्त गुरुदत्त शिवदत्त दाता लोग समझ जाते कि भोर हो गई।महादेव का पारिवारिक जीवन सुखमय न था। उसके तीन पुत्र थे, तीन बहुएँ थीं, दर्जनों नाती-पोते थे। लेकिन उसके बोझ को हलका करने वाला कोई न था। लडके कहते, 'जब तक दादा जीते हैं, हम जीवन का आनंद भोग लें, फिर तो यह ढोल गले पडेगी ही। बेचारे महादेव को कभी-कभी निराहार ही रहना पडता। भोजन के समय उसके घर में साम्यवाद का ऐसा गगनभेदी निर्घोष होता कि वह भूखा ही उठ आता और नारियल का हुक्का पीता हुआ सो जाता। उसका व्यावसायिक जीवन और भी अशांतिकारक था। य'पि वह अपने काम में निपुण था, उसकी खटाई औरों से कहीं ज्यादा शुध्दिकारक और उसकी रासायनिक क्रियाएँ कहीं ज्यादा कष्टसाध्य थीं, तथापि उसे आए दिन शक्की और धैर्यशून्य प्राणियों के अपशब्द सुनने पडते थे, पर महादेव अविचलित गाभ्भीर्य से सिर झुकाए सब कुछ सुना करता था। ज्यों ही यह कलह शांत होता, वह अपने तोते की ओर देखकर पुकार उठता-'सत्त गुरुदत्त शिवदत्त दाता। इस मंत्र को जपते ही उसके चित्त को पूर्ण शांति प्राप्त हो जाती।
एक दिन संयोगवश किसी लडके ने पिंजडे का द्वार खोल दिया। तोता उड गया। महादेव ने सिर उठाकर जो पिंजडे की ओर देखा, तो उसका कलेजा सन्न- से हो गया। तोता कहाँ गया! उसने फिर पिंजडे को देखा, तोता गायब था। महादेव घबडाकर उठा और इधर-उधर खपरैलों पर निगाह दौडाने लगा। उसे संसार में कोई वस्तु अगर प्यारी थी, तो वह यही तोता। लडके-बालों, नाती-पोतों से उसका जी भर गया था। लडकों की चुलबुल से उसके काम में विघ्न पडता था। बेटों से उसे प्रेम न था, इसलिए नहीं कि वे निकम्मे थे, बल्कि इसलिए कि उनके कारण वह अपने आनंददायी कुल्हडों की नियमित संख्या से वंचित रह जाता था। पडोसियों से उसे चिढ थी, इसलिए कि वे ऍंगीठी से आग निकाल ले जाते थे। इन समस्त विघ्न-बाधाओं से उसके लिए कोई पनाह थी, तो वह यही तोता था। इससे उसे किसी प्रकार का कष्ट न होता था। अब इस अवस्था में था, जब मनुष्य को शांति-भोग के सिवा और कोई इच्छा नहीं रहती।तोता एक खपरैल पर बैठा था। महादेव ने पिंजरा उतार लिया और उसे दिखाकर कहने लगा- 'आ आ सत्त गुरुदत्त शिवदत्त दाता। लेकिन गाँव और घर के लडके एकत्र होकर चिल्लाने और तालियाँ बजाने लगे। ऊपर से कौओं ने काँव-काँव की रट लगाई। तोता उडा और गाँव से बाहर निकलकर एक पेड पर जा बैठा। महादेव खाली पिंजडा लिए उसके पीछे दौडा, सो दौडा, लोगों को उसकी द्रुतगामिता पर अचम्भा हो रहा था। मोह की इससे सुंदर, इससे सजीव, भावमय कल्पना नहीं की जा सकती।दोपहर हो गई थी। किसान लोग खेतों से चले आ रहे थे। उन्हें विनोद का अच्छा अवसर मिला। महादेव को चिढाने में सभी को मजा आता था। किसी ने कंकड फेंके, किसी ने तालियाँ बजाईं। तोता फिर उडा और वहाँ से दूर आम के बाग में एक पेड की फुनगी पर जा बैठा। महादेव फिर खाली पिंजडा लिए मेंढक की भाँति उचकता चला। बाग में पहुँचा तो पैर के तलुओं से आग निकल रही थी, सिर चक्कर खा रहा था। जब जरा सावधान हुआ तो फिर पिंजडा उठाकर कहने लगा- 'सत्त गुरुदत्त शिवदत्त दाता। तोता फुनगी से उतर नीचे की ओर आ बैठा, किंतु महादेव की ओर सशंक नेत्रों से ताक रहा था। महादेव ने समझा, डर रहा है। वह पिंजडे को छोडकर एक दूसरे पेड की आड में छिप गया। तोते ने चारों ओर देखा, निश्शंक हो गया, उतरा और आकर पिंजडे के ऊपर बैठ गया। महादेव का हृदय उलझने लगा। 'सत्त गुरुदत्त शिवदत्त मंत्र जपता हुआ धीरे-धीरे तोते के सामने आया और लपका कि तोते को पकड ले, किंतु तोता हाथ न आया, फिर पेड पर जा बैठा।शाम तक यही हाल रहा। तोता कभी इस डाल पर जाता, कभी उस डाल पर। कभी पिंजडे पर आ बैठता, कभी पिंजडे के द्वार पर बैठ अपने दाना-पानी की प्यालियों को देखता और फिर उड जाता। बुङ्ढा अगर मूर्तिमान मोह था, तो तोता मूर्तिमयी माया। यहाँ तक कि शाम हो गई। माया और मोह का यह संग्राम अंधकार में विलीन हो गया।रात हो गई। चारों ओर निबिड अंधकार छा गया। तोता न जाने पत्तों में कहाँ छिपा बैठा था। महादेव जानता था कि रात को तोता कहीं उडकर नहीं जा सकता और न पिंजडे ही में आ सकता है, फिर भी वह उस जगह में हिलने का नाम न लेता था। आज उसने दिनभर कुछ नहीं खाया। रात के भोजन का समय भी निकल गया, पानी की एक बूँद भी उसके कंठ में न गई, लेकिन उसे न भूख थी, न प्यास। तोते के बिना उसे अपना जीवन निस्सार, शुष्क और सूना जान पडता था। वह दिन-रात काम करता था, इसलिए कि यह उसकी अंत:प्रेरणा थी, जीवन के और काम इसलिए करता था कि आदत थी। इन कामों में उसे अपनी सजीवता का लेश-मात्र भी ज्ञान न होता था। तोता ही वह वस्तु था, जो उसे चेतना की याद दिलाता था। उसका हाथ से जाना जीव का देह-त्याग करना था।महादेव दिनभर का भूखा-प्यासा, थका-माँदा, रह-रहकर झपकियाँ ले लेता था।, किंतु एक क्षण में फिर चौंक कर ऑंखें खोल देता और उस विस्तृत अंधकार में उसकी आवाज सुनाई देती- 'सत्त गुरुदत्त शिवदत्त दाता।आधी रात गुजर गई थी। सहसा वह कोई आहट पाकर चौंका। देखा, एक दूसरे वृक्ष के नीचे एक धुँधला दीपक जल रहा है और कई आदमी बैठे हुए आपस में कुछ बातें कर रहे हैं। वे सब चिलम पी रहे थे। तमाखू की महक ने उसे अधीर कर दिया। उच्च स्वर में बोला- 'सत्त गुरुदत्त शिवदत्त दाता और उन आदमियों की ओर चिलम पीने चला गया। किंतु जिस प्रकार बंदूक की आवाज सुनते ही हिरन भाग जाते हैं, उसी प्रकार उसे आते देख सब-के-सब उठकर भागे। कोई इधर गया, कोई उधर गया। महादेव चिल्लाने लगा- 'ठहरो-ठहरो! एकाएक उसे ध्यान आ गया, ये सब चोर हैं। वे जोर से चिल्ला उठा- 'चोर-चोर, पकडो-पकडो! चोरों ने पीछे फिरकर न देखा।महादेव दीपक के पास गया, तो उसे एक कलसा रखा हुआ मिला, जो मोर्चे से काला हो रहा था। महादेव का हृदय उछलने लगा। उसने कलसे में हाथ डाला, तो मोहरें थी। उसने एक मोहर बाहर निकाली और दीपक के उजाले में देखा। हाँ, मोहर थीं। उसने तुरंत कलसा उठा लिया, दीपक बुझा दिया और पेड के नीचे छिपकर बैठ रहा। साह से चोर बन गया।उसे फिर आशंका हुई, ऐसा न हो, चोर लौट आवें और मुझे अकेला देखकर मोहरें छीन लें। उसने कुछ मोहरें कमर में बाँधी, फिर एक सूखी लकडी से जमीन से मिट्टी हटाकर गङ्ढे बनाए, उन्हें मोहरों से भरकर मिट्टी से ढँक दिया।
महादेव के अंतर्नेत्रों के सामने अब एक दूसरा ही जगत था, चिंताओं और कल्पनाओं से परिपूर्ण। य'पि अभी कोष के हाथ से निकल जाने का भय था, पर अभिलाषाओं ने अपना काम शुरू कर दिया। एक पक्का मकान बन गया, सराफे की एक भारी दुकान खुल गई, निज सम्बन्धियों से फिर नाता जुड गया, विलास की सामग्रियाँ एकत्रित हो गईं। तब तीर्थयात्रा करने चले, और वहाँ से लौटकर बडे समारोह से यज्ञ, ब्रह्मभोज हुआ। इसके पश्चात एक शिवालय और कुऑं बन गया, एक बाग भी लग गया।अकस्मात उसे ध्यान आया, कहीं चोर आ जाएँ, तो मैं भागूँगा क्योंकर? उसने परीक्षा करने के लिए कलसा उठाया और दो सौ पग तक बेतहाशा भागा हुआ चला गया। जान पडता था, उसके पैरों में पर लग गए है। चिंता शांत हो गई। इन्हीं कल्पनाओं में रात व्यतीत हो गई। उषा का आगमन हुआ, हवा जागी, चिडिया गाने लगीं। सहसा महादेव के कानों में आवाज आई-'सत्त गुरुदत्त शिवदत्त दाता,राम के चरण में चित्त लागा।यह बोल सदैव महादेव की जिह्वा पर रहता था। दिन में सहस्रों ही बार ये शब्द उसके मुँह से निकलते थे, पर उनका धार्मिक भाव कभी अंत:करण को स्पर्श न करता था। जैसे किसी बाजे से राग निकलता है, उसी प्रकार उसके मुँह से यह बोल निकलता था। निरर्थक और प्रभाव-शून्य। तब उसका हृदय-रूपी वृक्ष पत्र-पल्लव विहीन था। यह निर्मल वायु उसे गुंजरित न कर सकती थी, पर अब उस वृक्ष में कोंपलें और शखाएँ निकल आई थीं। इस वायु-प्रवाह से झूम उठा, गुंजित हो गया।अरुणोदय का समय था। प्रकृति एक अनुरागमय प्रकाश में डूबी हुई थी। उसी समय तोता पैरों को जोडे हुए ऊँची डाल से उतरा, जैसे आकाश से कोई तारा टूटे और आकर पिंजडे में बैठ गया। महादेव प्रफुल्लित होकर दौडा और पिंजडे को उठाकर बोला- 'आओ आत्माराम, तुमने कष्ट तो बहुत दिया, यह मेरा जीवन भी सफल कर दिया। अब तुम्हें चाँदी के पिंजडे में रखूँगा और सोने से मढ दूँगा! उसके रोम-रोम से परमात्मा के गुणानुवाद की ध्वनि निकलने लगी। प्रभु, तुम कितने दयावान हो! यह तुम्हारा असीम वात्सल्य है, नहीं तो मुझ जैसा पापी, पतित प्राण कब इस कृपा के योग्य था! इन पवित्र भावों से उसकी आत्मा विह्वल हो गई। वह अनुरक्त होकर कह उठा-'सत्त गुरुदत्त शिवदत्त दाता,राम के चरण में चित्त लागा।उसने एक हाथ में पिंजडा लटकाया, बगल में कलसा दबाया और घर चला।महादेव घर पहुँचा, तो अभी कुछ ऍंधेरा था। रास्ते में एक कुत्ते के सिवा और किसी से भेंट न हुई, और कुत्ते को सोहरों से विशेष प्रेम नहीं होता। उसने कलसे को एक नाँद में छिपा दिया और उसे कोयले से अच्छी तरह ढँककर अपनी कोठरी में रख आया। जब दिन निकल आया तो वह सीधे पुरोहित के घर पहुँचा। पुरोहित पूजा पर बैठे सोच रहे थे- कल ही मुकदमे की पेशी है और अभी तक हाथ में कौडी भी नहीं, यजमानों में कोई साँस भी नहीं लेता। इतने में महादेव ने पालागन की। पंडितजी ने मुँह फेर लिया। यह अमंगलमूर्ति कहाँ से आ पहुँची? मालूम नहीं, दाना भी मुयस्सर होगा या नहीं। रुष्ट होकर पूछा- क्या है जी, क्या कहते हो? जानते नहीं, हम इस समय पूजा पर रहते हैं।महादेव ने कहा- महाराज, आज मेरे यहाँ सत्यनारायण की कथा है।पुरोहितजी विस्मित हो गए। कानों पर विश्वास न हुआ। महादेव के घर कथा का होना उतनी ही असाधारण घटना, जितनी अपने घर से किसी भिखारी के लिए भीख निकालना। पूछा- 'आज क्या है?महादेव बोला- 'कुछ नहीं। ऐसे इच्छा हुई कि आज भगवान की कथा सुन लूँ।प्रभात ही से तैयारी होने लगी। वेदी के निकटवर्ती गाँवों में सुपारी फिरी। कथा के उपरांत भोज का भी नेबता था। जो सुनता, आश्चर्य करता। आज रेत में दूब कैसे जमी?संध्या समय जब सब लोग जमा हो गए, और पंडितजी अपने सिंहासन पर विराजमान हुए, तो महादेव खडा होकर उच्च स्वर में बोला- भाइयो, मेरी सारी उम्रछल-कपट में कट गई। मैंने न जाने कितने आदमियों को दगा दी, कितने खरे को खोटा किया, पर अब भगवान ने मुझ पर दया की है, वह मेरे मुँह की कालिख को मिटाना चाहते हैं। मैं आप सब भाइयों से ललकाकर कहता ँ कि जिसका मेरे जिम्मे जो कुछ निकलता हो, जिसकी जमा मैंने मार ली हो, जिसके चोखे माल को खोटा कर दिया हो, वह आकर अपनी एक-एक कौडी चुका ले। अगर कोई यहाँ न आ सका हो तो आप लोग उससे जाकर कह दीजिए, कल से एक महीने तक, जब जी चाहे, आए और अपना हिसाब चुकता कर ले। गवाही-साखी का काम नहीं।सब लोग सन्नाटे में आ गए। कोई मार्मिक भाव से सिर हिलाकर बोला- हम कहते न थे! किसी ने अविश्वास से कहा- क्या खाकर भरेगा, हजारों का टोटल हो जाएगा।एक ठाकुर ने ठिठोली की- और जो लोग सुरधाम चले गए?महादेव ने उत्तर दिया- उसके घर वाले तो होंगे!किंतु इस समय लोगों को वसूली की उतनी इच्छा न थी, जितनी यह जानने की कि इसे इतना धन मिल कहाँ से गया। किसी को महादेव के पास आने का साहस न हुआ। देहात के आदमी थे, गडे मुर्दे उखाडना क्या जाने! फिर प्राय: लोगों को याद भी न था कि उन्हें महादेव से क्या पाना है, और ऐसे पवित्र अवसर पर भूल-चूक हो जाने का भय उनका मुँह बंद किए हुए था। सबसे बडी बात यह थी कि महादेव की साधुता ने उन्हें वशीभूत कर लिया था।अचानक पुरोहितजी बोले- तुम्हें याद है, मैंने एक कंठा बनाने के लिए सोना दिया था। तुमने कई माशे तौल में उडा दिए थे।महादेव-हाँ, याद है। आपका कितना नुकसान हुआ होगा?पुरोहित- पचास रुपए से कम न होगा।महादेव ने कमर से दो मोहरें निकालीं और पुरोहितजी के सामने रख दीं।पुरोहितजी की लोलुपता पर टीकाएँ होने लगी। यह बेईमानी है, बहुत हो, तो दो-चार रुपए का नुकसान हुआ होगा। बेचारे से पचास रुपए ऐंठ लिए। नारायण का भी डर नहीं। बनने को पंडित, पर नीयत ऐसी खराब! राम-राम!!लोगों को महादेव पर एक श्रध्दा-सी हो गई। एक घंटा बीत गया, पर उन सहस्रों मनुष्यों में से एक भी खडा न हुआ। तब महादेव ने फिर कहा- 'मालूम होता है, आप लोग अपना-अपना हिसाब भूल गए हैं, इसलिए आज कथा होने दीजिए। मैं एक महीने तक आपकी राह देखूँगा। इसके पीछे तीर्थयात्रा करने चला जाऊँगा। आप सब भाइयों से मेरी विनती है कि आप मेरा उध्दार करें।एक महीने तक महादेव लेनदारों की राह देखता रहा। रात को चोरों के भय से नींद न आती थी। अब वह कोई काम न करता। शराब का चसका भी छूटा। साधु-अभ्यागत जो द्वार पर आ जाते, उनका यथायोग्य सत्कार करता। दूर-दूर उसका सुयश फैल गया। यहाँ तक कि महीना पूरा हो गया और एक आदमी भी हिसाब लेने न आया। अब महादेव को ज्ञान हुआ कि संसार में कितना धर्म, कितना सद्व्यवहार है। अब उसे मालूम हुआ कि संसार बुरों के लिए बुरा है और अच्छों के लिए अच्छा।
इस घटना को पचास वर्ष बीत चुके हैं। आप वेदी ग्राम जाइए, तो दूर ही से एक सुनहला कलस दिखाई देता है। वह ठाकुरद्वारे का कलस है। उससे मिला हुआ एक पक्का तालाब है, जिसमें खूब कमल खिले रहते हैं। उसकी मछलियाँ कोई नहीं पकडता। तालाब के किनारे एक विशाल समाधि है। यही आत्माराम का स्मृति-चिह्न है। उसके संबंध में विभिन्न किंवदंतियाँ प्रचलित हैं। कोई कहता है, वह रत्नजडित पिंजडा स्वर्ग को चला गया। कोई कहता, वह 'सत गुरुदत्त कहता हुआ अंतर्धान हो गया। पर यथार्थ यह है कि पक्षी रूपी चंद्र को किसी बिल्ली रूपी राहु ने ग्रस लिया। लोग कहते हैं, आधी रात को अभी तक तालाब के किनारे आवाज आती है-सत्त गुरुदत्त शिवदत्त दाता,राम के चरण में चित्त लागा।महादेव के विषय में भी कितनी ही जन-श्रुतियाँ है। उनमें सबसे मान्य यह है कि आत्माराम के समाधिस्थ होने के बाद वह कई संन्यासियों के साथ हिमालय चला गया और वहाँ से लौटकर न आया। उसका नाम आत्माराम प्रसिध्द हो गया।
आत्माराम : मुन्शी प्रेमचन्द
वेदी ग्राम में महादेव सोनार एक सुविख्यात आदमी था। वह अपने सायबान में प्रात: से संध्या तक ऍंगीठी के सामने बैठा हुआ खटखट किया करता था। यह लगातार ध्वनि सुनने के लिए लोग इतने अभ्यस्त हो गए थे कि जब किसी कारण से बंद हो जाती, तो जान पडता था, कोई चीज गायब हो गई। वह नित्य-प्रति एक बार प्रात:काल अपने तोते का पिंजडा लिए कोई भजन गाता हुआ तालाब की ओर जाता था। उस धुँधले प्रकाश में उसका जर्जर शरीर, पोपला मुँह, झुकी हुई कमर देखकर किसी अपरिचित मनुष्य को उसके पिशाच होने का भ्रम हो सकता था। ज्यों ही लोगों के कानों में आवाज आती- 'सत्त गुरुदत्त शिवदत्त दाता लोग समझ जाते कि भोर हो गई।महादेव का पारिवारिक जीवन सुखमय न था। उसके तीन पुत्र थे, तीन बहुएँ थीं, दर्जनों नाती-पोते थे। लेकिन उसके बोझ को हलका करने वाला कोई न था। लडके कहते, 'जब तक दादा जीते हैं, हम जीवन का आनंद भोग लें, फिर तो यह ढोल गले पडेगी ही। बेचारे महादेव को कभी-कभी निराहार ही रहना पडता। भोजन के समय उसके घर में साम्यवाद का ऐसा गगनभेदी निर्घोष होता कि वह भूखा ही उठ आता और नारियल का हुक्का पीता हुआ सो जाता। उसका व्यावसायिक जीवन और भी अशांतिकारक था। य'पि वह अपने काम में निपुण था, उसकी खटाई औरों से कहीं ज्यादा शुध्दिकारक और उसकी रासायनिक क्रियाएँ कहीं ज्यादा कष्टसाध्य थीं, तथापि उसे आए दिन शक्की और धैर्यशून्य प्राणियों के अपशब्द सुनने पडते थे, पर महादेव अविचलित गाभ्भीर्य से सिर झुकाए सब कुछ सुना करता था। ज्यों ही यह कलह शांत होता, वह अपने तोते की ओर देखकर पुकार उठता-'सत्त गुरुदत्त शिवदत्त दाता। इस मंत्र को जपते ही उसके चित्त को पूर्ण शांति प्राप्त हो जाती।
एक दिन संयोगवश किसी लडके ने पिंजडे का द्वार खोल दिया। तोता उड गया। महादेव ने सिर उठाकर जो पिंजडे की ओर देखा, तो उसका कलेजा सन्न- से हो गया। तोता कहाँ गया! उसने फिर पिंजडे को देखा, तोता गायब था। महादेव घबडाकर उठा और इधर-उधर खपरैलों पर निगाह दौडाने लगा। उसे संसार में कोई वस्तु अगर प्यारी थी, तो वह यही तोता। लडके-बालों, नाती-पोतों से उसका जी भर गया था। लडकों की चुलबुल से उसके काम में विघ्न पडता था। बेटों से उसे प्रेम न था, इसलिए नहीं कि वे निकम्मे थे, बल्कि इसलिए कि उनके कारण वह अपने आनंददायी कुल्हडों की नियमित संख्या से वंचित रह जाता था। पडोसियों से उसे चिढ थी, इसलिए कि वे ऍंगीठी से आग निकाल ले जाते थे। इन समस्त विघ्न-बाधाओं से उसके लिए कोई पनाह थी, तो वह यही तोता था। इससे उसे किसी प्रकार का कष्ट न होता था। अब इस अवस्था में था, जब मनुष्य को शांति-भोग के सिवा और कोई इच्छा नहीं रहती।तोता एक खपरैल पर बैठा था। महादेव ने पिंजरा उतार लिया और उसे दिखाकर कहने लगा- 'आ आ सत्त गुरुदत्त शिवदत्त दाता। लेकिन गाँव और घर के लडके एकत्र होकर चिल्लाने और तालियाँ बजाने लगे। ऊपर से कौओं ने काँव-काँव की रट लगाई। तोता उडा और गाँव से बाहर निकलकर एक पेड पर जा बैठा। महादेव खाली पिंजडा लिए उसके पीछे दौडा, सो दौडा, लोगों को उसकी द्रुतगामिता पर अचम्भा हो रहा था। मोह की इससे सुंदर, इससे सजीव, भावमय कल्पना नहीं की जा सकती।दोपहर हो गई थी। किसान लोग खेतों से चले आ रहे थे। उन्हें विनोद का अच्छा अवसर मिला। महादेव को चिढाने में सभी को मजा आता था। किसी ने कंकड फेंके, किसी ने तालियाँ बजाईं। तोता फिर उडा और वहाँ से दूर आम के बाग में एक पेड की फुनगी पर जा बैठा। महादेव फिर खाली पिंजडा लिए मेंढक की भाँति उचकता चला। बाग में पहुँचा तो पैर के तलुओं से आग निकल रही थी, सिर चक्कर खा रहा था। जब जरा सावधान हुआ तो फिर पिंजडा उठाकर कहने लगा- 'सत्त गुरुदत्त शिवदत्त दाता। तोता फुनगी से उतर नीचे की ओर आ बैठा, किंतु महादेव की ओर सशंक नेत्रों से ताक रहा था। महादेव ने समझा, डर रहा है। वह पिंजडे को छोडकर एक दूसरे पेड की आड में छिप गया। तोते ने चारों ओर देखा, निश्शंक हो गया, उतरा और आकर पिंजडे के ऊपर बैठ गया। महादेव का हृदय उलझने लगा। 'सत्त गुरुदत्त शिवदत्त मंत्र जपता हुआ धीरे-धीरे तोते के सामने आया और लपका कि तोते को पकड ले, किंतु तोता हाथ न आया, फिर पेड पर जा बैठा।शाम तक यही हाल रहा। तोता कभी इस डाल पर जाता, कभी उस डाल पर। कभी पिंजडे पर आ बैठता, कभी पिंजडे के द्वार पर बैठ अपने दाना-पानी की प्यालियों को देखता और फिर उड जाता। बुङ्ढा अगर मूर्तिमान मोह था, तो तोता मूर्तिमयी माया। यहाँ तक कि शाम हो गई। माया और मोह का यह संग्राम अंधकार में विलीन हो गया।रात हो गई। चारों ओर निबिड अंधकार छा गया। तोता न जाने पत्तों में कहाँ छिपा बैठा था। महादेव जानता था कि रात को तोता कहीं उडकर नहीं जा सकता और न पिंजडे ही में आ सकता है, फिर भी वह उस जगह में हिलने का नाम न लेता था। आज उसने दिनभर कुछ नहीं खाया। रात के भोजन का समय भी निकल गया, पानी की एक बूँद भी उसके कंठ में न गई, लेकिन उसे न भूख थी, न प्यास। तोते के बिना उसे अपना जीवन निस्सार, शुष्क और सूना जान पडता था। वह दिन-रात काम करता था, इसलिए कि यह उसकी अंत:प्रेरणा थी, जीवन के और काम इसलिए करता था कि आदत थी। इन कामों में उसे अपनी सजीवता का लेश-मात्र भी ज्ञान न होता था। तोता ही वह वस्तु था, जो उसे चेतना की याद दिलाता था। उसका हाथ से जाना जीव का देह-त्याग करना था।महादेव दिनभर का भूखा-प्यासा, थका-माँदा, रह-रहकर झपकियाँ ले लेता था।, किंतु एक क्षण में फिर चौंक कर ऑंखें खोल देता और उस विस्तृत अंधकार में उसकी आवाज सुनाई देती- 'सत्त गुरुदत्त शिवदत्त दाता।आधी रात गुजर गई थी। सहसा वह कोई आहट पाकर चौंका। देखा, एक दूसरे वृक्ष के नीचे एक धुँधला दीपक जल रहा है और कई आदमी बैठे हुए आपस में कुछ बातें कर रहे हैं। वे सब चिलम पी रहे थे। तमाखू की महक ने उसे अधीर कर दिया। उच्च स्वर में बोला- 'सत्त गुरुदत्त शिवदत्त दाता और उन आदमियों की ओर चिलम पीने चला गया। किंतु जिस प्रकार बंदूक की आवाज सुनते ही हिरन भाग जाते हैं, उसी प्रकार उसे आते देख सब-के-सब उठकर भागे। कोई इधर गया, कोई उधर गया। महादेव चिल्लाने लगा- 'ठहरो-ठहरो! एकाएक उसे ध्यान आ गया, ये सब चोर हैं। वे जोर से चिल्ला उठा- 'चोर-चोर, पकडो-पकडो! चोरों ने पीछे फिरकर न देखा।महादेव दीपक के पास गया, तो उसे एक कलसा रखा हुआ मिला, जो मोर्चे से काला हो रहा था। महादेव का हृदय उछलने लगा। उसने कलसे में हाथ डाला, तो मोहरें थी। उसने एक मोहर बाहर निकाली और दीपक के उजाले में देखा। हाँ, मोहर थीं। उसने तुरंत कलसा उठा लिया, दीपक बुझा दिया और पेड के नीचे छिपकर बैठ रहा। साह से चोर बन गया।उसे फिर आशंका हुई, ऐसा न हो, चोर लौट आवें और मुझे अकेला देखकर मोहरें छीन लें। उसने कुछ मोहरें कमर में बाँधी, फिर एक सूखी लकडी से जमीन से मिट्टी हटाकर गङ्ढे बनाए, उन्हें मोहरों से भरकर मिट्टी से ढँक दिया।
महादेव के अंतर्नेत्रों के सामने अब एक दूसरा ही जगत था, चिंताओं और कल्पनाओं से परिपूर्ण। य'पि अभी कोष के हाथ से निकल जाने का भय था, पर अभिलाषाओं ने अपना काम शुरू कर दिया। एक पक्का मकान बन गया, सराफे की एक भारी दुकान खुल गई, निज सम्बन्धियों से फिर नाता जुड गया, विलास की सामग्रियाँ एकत्रित हो गईं। तब तीर्थयात्रा करने चले, और वहाँ से लौटकर बडे समारोह से यज्ञ, ब्रह्मभोज हुआ। इसके पश्चात एक शिवालय और कुऑं बन गया, एक बाग भी लग गया।अकस्मात उसे ध्यान आया, कहीं चोर आ जाएँ, तो मैं भागूँगा क्योंकर? उसने परीक्षा करने के लिए कलसा उठाया और दो सौ पग तक बेतहाशा भागा हुआ चला गया। जान पडता था, उसके पैरों में पर लग गए है। चिंता शांत हो गई। इन्हीं कल्पनाओं में रात व्यतीत हो गई। उषा का आगमन हुआ, हवा जागी, चिडिया गाने लगीं। सहसा महादेव के कानों में आवाज आई-'सत्त गुरुदत्त शिवदत्त दाता,राम के चरण में चित्त लागा।यह बोल सदैव महादेव की जिह्वा पर रहता था। दिन में सहस्रों ही बार ये शब्द उसके मुँह से निकलते थे, पर उनका धार्मिक भाव कभी अंत:करण को स्पर्श न करता था। जैसे किसी बाजे से राग निकलता है, उसी प्रकार उसके मुँह से यह बोल निकलता था। निरर्थक और प्रभाव-शून्य। तब उसका हृदय-रूपी वृक्ष पत्र-पल्लव विहीन था। यह निर्मल वायु उसे गुंजरित न कर सकती थी, पर अब उस वृक्ष में कोंपलें और शखाएँ निकल आई थीं। इस वायु-प्रवाह से झूम उठा, गुंजित हो गया।अरुणोदय का समय था। प्रकृति एक अनुरागमय प्रकाश में डूबी हुई थी। उसी समय तोता पैरों को जोडे हुए ऊँची डाल से उतरा, जैसे आकाश से कोई तारा टूटे और आकर पिंजडे में बैठ गया। महादेव प्रफुल्लित होकर दौडा और पिंजडे को उठाकर बोला- 'आओ आत्माराम, तुमने कष्ट तो बहुत दिया, यह मेरा जीवन भी सफल कर दिया। अब तुम्हें चाँदी के पिंजडे में रखूँगा और सोने से मढ दूँगा! उसके रोम-रोम से परमात्मा के गुणानुवाद की ध्वनि निकलने लगी। प्रभु, तुम कितने दयावान हो! यह तुम्हारा असीम वात्सल्य है, नहीं तो मुझ जैसा पापी, पतित प्राण कब इस कृपा के योग्य था! इन पवित्र भावों से उसकी आत्मा विह्वल हो गई। वह अनुरक्त होकर कह उठा-'सत्त गुरुदत्त शिवदत्त दाता,राम के चरण में चित्त लागा।उसने एक हाथ में पिंजडा लटकाया, बगल में कलसा दबाया और घर चला।महादेव घर पहुँचा, तो अभी कुछ ऍंधेरा था। रास्ते में एक कुत्ते के सिवा और किसी से भेंट न हुई, और कुत्ते को सोहरों से विशेष प्रेम नहीं होता। उसने कलसे को एक नाँद में छिपा दिया और उसे कोयले से अच्छी तरह ढँककर अपनी कोठरी में रख आया। जब दिन निकल आया तो वह सीधे पुरोहित के घर पहुँचा। पुरोहित पूजा पर बैठे सोच रहे थे- कल ही मुकदमे की पेशी है और अभी तक हाथ में कौडी भी नहीं, यजमानों में कोई साँस भी नहीं लेता। इतने में महादेव ने पालागन की। पंडितजी ने मुँह फेर लिया। यह अमंगलमूर्ति कहाँ से आ पहुँची? मालूम नहीं, दाना भी मुयस्सर होगा या नहीं। रुष्ट होकर पूछा- क्या है जी, क्या कहते हो? जानते नहीं, हम इस समय पूजा पर रहते हैं।महादेव ने कहा- महाराज, आज मेरे यहाँ सत्यनारायण की कथा है।पुरोहितजी विस्मित हो गए। कानों पर विश्वास न हुआ। महादेव के घर कथा का होना उतनी ही असाधारण घटना, जितनी अपने घर से किसी भिखारी के लिए भीख निकालना। पूछा- 'आज क्या है?महादेव बोला- 'कुछ नहीं। ऐसे इच्छा हुई कि आज भगवान की कथा सुन लूँ।प्रभात ही से तैयारी होने लगी। वेदी के निकटवर्ती गाँवों में सुपारी फिरी। कथा के उपरांत भोज का भी नेबता था। जो सुनता, आश्चर्य करता। आज रेत में दूब कैसे जमी?संध्या समय जब सब लोग जमा हो गए, और पंडितजी अपने सिंहासन पर विराजमान हुए, तो महादेव खडा होकर उच्च स्वर में बोला- भाइयो, मेरी सारी उम्रछल-कपट में कट गई। मैंने न जाने कितने आदमियों को दगा दी, कितने खरे को खोटा किया, पर अब भगवान ने मुझ पर दया की है, वह मेरे मुँह की कालिख को मिटाना चाहते हैं। मैं आप सब भाइयों से ललकाकर कहता ँ कि जिसका मेरे जिम्मे जो कुछ निकलता हो, जिसकी जमा मैंने मार ली हो, जिसके चोखे माल को खोटा कर दिया हो, वह आकर अपनी एक-एक कौडी चुका ले। अगर कोई यहाँ न आ सका हो तो आप लोग उससे जाकर कह दीजिए, कल से एक महीने तक, जब जी चाहे, आए और अपना हिसाब चुकता कर ले। गवाही-साखी का काम नहीं।सब लोग सन्नाटे में आ गए। कोई मार्मिक भाव से सिर हिलाकर बोला- हम कहते न थे! किसी ने अविश्वास से कहा- क्या खाकर भरेगा, हजारों का टोटल हो जाएगा।एक ठाकुर ने ठिठोली की- और जो लोग सुरधाम चले गए?महादेव ने उत्तर दिया- उसके घर वाले तो होंगे!किंतु इस समय लोगों को वसूली की उतनी इच्छा न थी, जितनी यह जानने की कि इसे इतना धन मिल कहाँ से गया। किसी को महादेव के पास आने का साहस न हुआ। देहात के आदमी थे, गडे मुर्दे उखाडना क्या जाने! फिर प्राय: लोगों को याद भी न था कि उन्हें महादेव से क्या पाना है, और ऐसे पवित्र अवसर पर भूल-चूक हो जाने का भय उनका मुँह बंद किए हुए था। सबसे बडी बात यह थी कि महादेव की साधुता ने उन्हें वशीभूत कर लिया था।अचानक पुरोहितजी बोले- तुम्हें याद है, मैंने एक कंठा बनाने के लिए सोना दिया था। तुमने कई माशे तौल में उडा दिए थे।महादेव-हाँ, याद है। आपका कितना नुकसान हुआ होगा?पुरोहित- पचास रुपए से कम न होगा।महादेव ने कमर से दो मोहरें निकालीं और पुरोहितजी के सामने रख दीं।पुरोहितजी की लोलुपता पर टीकाएँ होने लगी। यह बेईमानी है, बहुत हो, तो दो-चार रुपए का नुकसान हुआ होगा। बेचारे से पचास रुपए ऐंठ लिए। नारायण का भी डर नहीं। बनने को पंडित, पर नीयत ऐसी खराब! राम-राम!!लोगों को महादेव पर एक श्रध्दा-सी हो गई। एक घंटा बीत गया, पर उन सहस्रों मनुष्यों में से एक भी खडा न हुआ। तब महादेव ने फिर कहा- 'मालूम होता है, आप लोग अपना-अपना हिसाब भूल गए हैं, इसलिए आज कथा होने दीजिए। मैं एक महीने तक आपकी राह देखूँगा। इसके पीछे तीर्थयात्रा करने चला जाऊँगा। आप सब भाइयों से मेरी विनती है कि आप मेरा उध्दार करें।एक महीने तक महादेव लेनदारों की राह देखता रहा। रात को चोरों के भय से नींद न आती थी। अब वह कोई काम न करता। शराब का चसका भी छूटा। साधु-अभ्यागत जो द्वार पर आ जाते, उनका यथायोग्य सत्कार करता। दूर-दूर उसका सुयश फैल गया। यहाँ तक कि महीना पूरा हो गया और एक आदमी भी हिसाब लेने न आया। अब महादेव को ज्ञान हुआ कि संसार में कितना धर्म, कितना सद्व्यवहार है। अब उसे मालूम हुआ कि संसार बुरों के लिए बुरा है और अच्छों के लिए अच्छा।
इस घटना को पचास वर्ष बीत चुके हैं। आप वेदी ग्राम जाइए, तो दूर ही से एक सुनहला कलस दिखाई देता है। वह ठाकुरद्वारे का कलस है। उससे मिला हुआ एक पक्का तालाब है, जिसमें खूब कमल खिले रहते हैं। उसकी मछलियाँ कोई नहीं पकडता। तालाब के किनारे एक विशाल समाधि है। यही आत्माराम का स्मृति-चिह्न है। उसके संबंध में विभिन्न किंवदंतियाँ प्रचलित हैं। कोई कहता है, वह रत्नजडित पिंजडा स्वर्ग को चला गया। कोई कहता, वह 'सत गुरुदत्त कहता हुआ अंतर्धान हो गया। पर यथार्थ यह है कि पक्षी रूपी चंद्र को किसी बिल्ली रूपी राहु ने ग्रस लिया। लोग कहते हैं, आधी रात को अभी तक तालाब के किनारे आवाज आती है-सत्त गुरुदत्त शिवदत्त दाता,राम के चरण में चित्त लागा।महादेव के विषय में भी कितनी ही जन-श्रुतियाँ है। उनमें सबसे मान्य यह है कि आत्माराम के समाधिस्थ होने के बाद वह कई संन्यासियों के साथ हिमालय चला गया और वहाँ से लौटकर न आया। उसका नाम आत्माराम प्रसिध्द हो गया।
A great story Reetesh, but does today's world is "Good for Good People and Bad for Bad People"? Now this a question to be thought of? Isn't it? What does your experience says of it?
ReplyDeleteAgree with Deepak.Whaddya think..??
ReplyDelete@Deepak & Cin
ReplyDeleteSo what do I think ? Truly speaking, I stopped analyzing human beings many years back, probably in 3rd year of my BTech. Nowdays, I am so involved in my work, I think only two things -- whether this person is worth working with or not ! Aha, ofcourse I do not put hard constraints over work, but then it is the only criteria I look for. It is very hard to judge human beings. Some times I found the typical bad people, who are bad for many of us, doing great work for those who really in great need of help. And sometimes, I found the social sons turning up popping diplomatic words when they were addressed for help.
For me, the solution is, typically artificial, mechanical ...sorry!
nee enna ezhuthirukkenrathe puriyale da mutta payale....
ReplyDeleteI know,human behaivior can be so damn rational and artificial and when you start coming across a lot of it,a time comes when you just feel like closing your eyes to the rest of the world and shrinking into your own cocoon.
ReplyDeleteThen the motto perhaps becomes "just let them be"...atleast thats what mine has been.
@Cin -- Yes cin, you are right.
ReplyDeletemukul finally u came with a great story n this time premchandra.one of my favourite writer.when i was 12i read his story kafan n the best thing of preamchandra writing is a good combination of fiction n reality.sawa ser ghehu represents real picture of our society.there r so many shankars so many vipras n euqal no of mahatmas.i dont think life is good or bad.its something else than our imagination.noone can findout what is the bedrock of life.how we can decide what is inside a human brain?according to me good n bad r sheer adjectives n just like two sides of coin.we hav to accept both side equally widout any argument.so in my view noone is good n noone is bad.the one thing made them bad or good is our criteria.
ReplyDelete@anon -- Learned person who are you ? Kindly tell me your name. You have put the conception exact.
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